आगामी 8-9 जून को कज़ाख़स्तान की राजधानी अस्ताना में शंघाई सहयोग संगठन (शंसस) के शिखर सम्मेलन में औपचारिक रूप से एक नए सुरक्षा ढाँचे को स्वीकार किया जाएगा, जो यूरेशिया के 60 प्रतिशत हिस्से पर लागू होगा और पूरी दुनिया पर जिसका लम्बे समय तक स्थायी प्रभाव रहेगा।
आधिकारिक तौर पर भारत और पाकिस्तान के शंसस के पूर्ण सदस्य बनने के साथ ही शंसस में शामिल देशों की कुल आबादी लगभग साढ़े तीन अरब हो जाएगी। यानी क़रीब आधी मानवजाति शंघाई सहयोग संगठन (शंसस) में शामिल होगी, जिसका सँयुक्त सकल घरेलू उत्पाद वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के 25 प्रतिशत से ज़्यादा होगा। इस प्रकार शंसस सभी मायनों में अर्थशास्त्र और यूरेशिया की राजनीति की दृष्टि से एक ऐसा प्रमुख संगठन बन जाएगा, जो वैश्विक मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा और दुनिया की क़िस्मत बदल देगा।
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शंसस के विकास की संभावनाओं पर पहले ही बहुत-कुछ कहा जा चुका है। साफ़ है कि यह संगठन यूरेशिया में एकीकरण की सभी प्रक्रियाओं को भारी प्रोत्साहन देगा। रूस, भारत और चीन जैसे देश अब एक ही छतरी के नीचे आ जाएँगे, जो पहले से ही ’रूस-भारत-चीन त्रिगुट’, ’ब्रिक्स’ और ’जी -20’ के अन्तर्गत आपस में सहयोग कर रहे हैं। आतंकवाद, हथियारों की होड़, ग़रीबी, अकाल, संक्रामक रोग और महामारी, प्राकृतिक और तकनीकी आपदाओं, जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी जैसी समस्याओं को हल करने की दिशा में अब ये तीनों देश मिलकर ज़रूरी काम कर सकेंगे।
2001 में शंसस के गठन के बाद से ही उसके कुछ आलोचक लगातार इस तरह की बातें कर रहे हैं कि यह संगठन चीन ने इसलिए बनाया है ताकि चीन यूरेशिया में अपने विस्तार को सुनिश्चित कर सके और अपने पड़ोसी देशों में चीन के प्रभुत्व को स्थापित कर सके। चीन चाहता है कि शुरू में आर्थिक रूप से यूरेशिया के देश उसके प्रभुत्व में आ जाएँ, इसके बाद वह राजनीतिक रूप से भी उनपर अपना प्रभुत्व कायम कर लेगा।
दरअसल चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में निश्चित रूप से यूरेशिया महाद्वीप पर चल रही सभी आर्थिक प्रक्रियाओं का केन्द्र बना हुआ है। ’एक पट्टी-एक सड़क’ की पहल चीन ने 2013 के आरम्भ में पेश की थी और आज यह पहल काफ़ी शक्तिशाली हो चुकी है। शंसस में सभी प्रक्रियाओं में, सभी गतिविधियों में चीन की भूमिका अग्रणी है। वह इस संगठन की सभी पहलों और गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेता है।
शंघाई सहयोग संगठन (शंसस) में चीन लगातार आर्थिक मुद्दों को ही प्राथमिकता देने की कोशिश करता है। इसी कारण से शंसस आख़िरकार और अनिवार्य रूप से पेइचिंग का ही एक औजार बन गया है। ज़रूरत इस बात की है कि यह संगठन रूस और अन्य देशों के लिए भी लाभप्रद हो और आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ इसमें सुरक्षा के सवाल पर भी काम किया जाए। दोनों विषयों में संतुलन बनाए रखने की ज़रूरत है।
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यह तय है कि शंसस के विस्तार से यूरेशिया में एकीकरण का एक नया आयाम जुड़ेगा। बहुत से पर्यवेक्षक चीन द्वारा पेश की गई ’एक पट्टी-एक सड़क’ की पहल को और रूस द्वारा बनाए जा रहे ’अन्तरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे’ की परियोजना को दो प्रतिस्पर्धी पहलों के रूप में देखते हैं। ’अन्तरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा’ परियोजना में रूस, भारत और ईरान शामिल हैं। साफ़-साफ़ यह दिखाई दे रहा है कि ये दो अलग-अलग परियोजनाएँ हैं और दोनों की दिशाएँ भी अलग-अलग हैं। इसलिए कहना चाहिए कि वे पर्यवेक्षक जब इन परियोजनाओं के बीच प्रतिस्पर्धा की बात करते हैं तो वे ’सफ़ेद झूठ’ बोल रहे होते हैं।
’एक पट्टी-एक सड़क’ परियोजना पूर्व-पश्चिम की दिशा में बढ़ रही है, जबकि ’अन्तरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे’ की परियोजना’, जैसाकि उसके नाम से भी साफ़ है, उत्तर-दक्षिण में अपने पैर पसार रही है। इन दोनों परियोजनाओं के पूरा हो जाने के बाद पूरा एशिया और पूर्वी यूरोप परिवहन मार्गों की दृष्टि से आपस में जुड़ जाएँगे। अभी तक आपसी भूसम्पर्क न होने के कारण रूस और भारत आपसी दुपक्षीय व्यापार नहीं कर पा रहे थे। अब यह गम्भीर बाधा दूर हो जाएगी और दोनों देशों को अपना आपसी व्यापार बढ़ाने का अवसर मिलेगा।
दूसरी ओर, ’एक पट्टी-एक सड़क’ परियोजना मुख्य रूप से चीन की अपनी भूमि पर ही लागू होगी और इसमें चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इस परियोजना पर अमल करने से दुनिया के इस क्षेत्र में मौजूदा यथास्थिति का उल्लंघन हो रहा है। इसीलिए भारत ने ’सिल्क रोड फ़ोरम’ की बैठक में भाग लेने से इनकार कर दिया। अब, बस, चिन्ता की यही बात है कि अगर दोनों देश अपनी-अपनी ज़िद पर अड़े रहे और किसी समझौते पर पहुँचने से इनकार करते रहे तो इस विशेष मुद्दे पर क्या परिणाम निकलेंगे।
निश्चित रूप से, शायद ही शंसस में शामिल कोई देश इस बात को पसन्द करेगा कि कश्मीर के सवाल को शंसस की बैठकों में उठाया जाए। यह कोई रहस्य की बात नहीं है कि पाकिस्तान काफ़ी लम्बे समय से इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि कश्मीर के सवाल का अन्तरराष्ट्रीयकरण कर दिया जाए। चीन ने जिस तेज़ी से गिलगित-बाल्टिस्तान की ज़मीन पर गलियारा बनाया है, उससे अब कश्मीर का यह मुद्दा त्रिपक्षीय रूप धारण कर चुका है। इसलिए यह ज़रूरी है कि यह मुद्दा शंसस की बैठकों में न उठाया जाए और इसका समाधान भारत और पाकिस्तान दुपक्षीय स्तर पर ख़ुद ही कर लें।
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यहाँ इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि भारत और पाकिस्तान के औपचारिक रूप से शंसस में शामिल होने के बाद शंसस का कार्यक्रम बदल सकता है। ख़ासकर भारत के शंसस का सदस्य बनने से शंसस में स्थिति पूरी तरह से बदल जाएगी। रूस और भारत की अर्थव्यवस्थाएँ सँयुक्त रूप से चीन की अर्थव्यवस्था से छोटी हो सकती हैं, लेकिन इन दोनों देशों का राजनीतिक और सैन्य असर बहुत ज़्यादा है, जिसकी वजह से शंसस में चीन का असर कम होगा। इसलिए ब्रिक्स बैंक और एशियाई ढाँचागत निवेश बैंक के साथ-साथ शंसस के अन्तर्गत भी एक नया बैंक बनाया जा सकता है, जो शंसस के सदस्य देशों की परियोजनाओं के लिए बिना किसी पूर्वाग्रह और अनुचित वरीयताओं के पूंजी और निवेश उपलब्ध कराएगा। यह अपने आप में एक बड़ा अच्छा विचार है।
शंघाई सहयोग संगठन (शंसस) के अन्तर्गत एक और मुद्दे पर बात की जा सकती है। इस सवाल पर अभी तक शायद ही कभी चर्चा हुई है। यह सवाल है— जल संसाधनों के बँटवारे का। इस पूरे इलाके में जल संसाधनों का बँटवारा एक गम्भीर समस्या बना हुआ है। विशेष रूप से सीमा पार से आने वाली नदियों और अन्य जल भण्डारों के पानी का बँटवारा किस तरह से किया जाए, इसका कोई सुनिश्चित समाधान अब तक नहीं किया गया है।
भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हुई सिन्धु जल सन्धि एक अनुकरणीय सन्धि है, जो दो देशों के बीच आपसी तनावपूर्ण सम्बन्धों की हालत में भी जल-विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करती है। लेकिन हाल के वर्षों में नियंत्रण रेखा के क्षेत्र में दोनों ओर से कई ऐसी घटनाएँ हुई है, जिन्हें इस सन्धि की मूल धाराओं का उल्लंघन माना जा सकता है। हाल ही में चीन यह योजना बना रहा है कि वह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में पनबिजलीघर बनाने के लिए अरबों डॉलर खर्च करेगा। यह भी एक कारण है, जिसकी वजह से भारत ने सिल्क रोड फोरम में भाग नहीं लिया।
ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन की गतिविधियाँ भी भारत के लिए चिन्ता का सबब हैं। वास्तव में, चीन अपनी इस एकाधिकार पूर्ण स्थिति का फ़ायदा उठा रहा है कि यूरेशिया की ज़्यादातर बड़ी नदियों के अधिकांश स्रोतों पर उसका नियन्त्रण है। लेकिन जब इन नदियों पर नीचे की ओर बसे हुए देशों के हित की बात आती है तो चीन उन मुद्दों को अपने पड़ोसी देशों के साथ सिर्फ़ दुपक्षीय आधार पर ही बात करना चाहता है।
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उदाहरण के लिए, इरतिश नदी का उद्गम चीन में है। लेकिन चीन के बाद वह आगे कज़ाख़स्तान से गुज़रकर फिर रूस में बहती है। हालांकि चीन इरतिश नदी और उसकी सहायक नदियों के पानी के बँटवारे को लेकर कज़ाख़स्तान के साथ जल-विवाद पर चर्चा करने के लिए तैयार है, लेकिन वह इस सवाल पर रूस के साथ कोई भी बातचीत नहीं करना चाहता है। इसका नकारात्मक असर पश्चिमी साइबेरिया की ओम्स्क नदी के ऊपर पड़ता है। ओम्स्क भी वही इरतिश नामक नदी है, जो कज़ाख़स्तान से रूस पहुँचती है।
चीन के साथ यह स्थिति इसलिए और भी ख़राब है क्योंकि सीमापार बहने वाली नदियों के जल-बँटवारे के सिलसिले में कोई अन्तरराष्ट्रीय बाध्यकारी कानून नहीं हैं। इसलिए शंसस के अन्तर्गत इस सवाल पर कम से कम एक क्षेत्रीय सम्मेलन तो तुरन्त कराया जा सकता है। इस सम्मेलन में भारत की सहभागिता और उसका अनुभव बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
एक और सवाल, जिसपर शंसस में बात की जानी चाहिए, वह अफ़ग़ान-समस्या से जुड़ा हुआ है। अफ़ग़ानिस्तान को शंसस में 2012 से ही पर्यवेक्षक देश का दर्जा मिला हुआ है। निश्चित रूप से अफ़ग़ानिस्तान में सुलह की प्रक्रिया अफ़ग़ान नेतृत्व में ही अफ़ग़ानिस्तानियों द्वारा ही होनी चाहिए। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उसमें अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देश भाग नहीं लेंगे और उसकी सहायता नहीं करेंगे। अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों में तुर्कमेनिस्तान को छोड़कर अब सभी देश एक ही संगठन के सदस्य बनने जा रहे है। अब शंसस का सदस्य बनने के बाद इन देशों का यह गम्भीर दायित्व भी है कि वे अफ़ग़ान समस्या के समाधान में सहयोग करें।
तत्काल ज़रूरत तो इस बात की है कि शंसस के सभी सदस्य और उसमें पर्यवेक्षक का दर्जा रखने वाले ईरान जैसे देश भी अफ़ग़ानिस्तान में तनाव घटाने के लिए दुपक्षीय मतभेदों और आपसी विवादों को दूर करें। 1990 के दशक की परिस्थिति की ओर फिर से वापिस लौटना एक बड़ी गम्भीर ग़लती होगी।
अफ़ग़ानिस्तान में सभी बाहरी पक्षों को अपने हितों को एक तरफ़ रखकर सुलह की प्रक्रिया शुरू करने के लिए अपने-अपने प्रभाव का उपयोग करने की कोशिश करनी चाहिए। इस नीति का परिणाम भी अच्छा निकलेगा। वहाँ लड़ाई बन्द हो जाएगी और आख़िरकार क्रूर तालिबान को जीतना संभव हो जाएगा। आज के अफगानिस्तान के लिए और उसके पड़ोसी देशों के लिए भी यही सबसे अच्छा विकल्प है।
वास्तव में ये सभी समस्याएँ, जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है, शंसस के विकास के लिए एक बाधा के रूप में खड़ी हुई हैं। इन समस्याओं के जाल से बचने के लिए सभी पक्षों को सहिष्णुता और प्रबल इच्छाशक्ति दिखानी होगी। यूरेशिया के इस हिस्से में आपसी सम्बन्धों का लम्बा इतिहास इस बात का गवाह है कि सब राजनेता प्रबल इच्छाशक्ति रखते हैं, जो कठिन परिस्थितियों से गुज़रने में उनकी सहायक होगी।
लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।
बाम्बे हाई — 40 वर्ष पुरानी रूसी खोज