निकीता ख़्रुषोफ़ और निकलाय बुल्गानिन ने नवम्बर-दिसम्बर 1955 में भारत की यात्रा पर आए रूस के पहले आधिकारिक दल का नेतृत्व किया था। भारतीय नेताओं पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए ख़्रुषोफ़ अपने साथ एक काफ़ी बड़ा प्रतिनिधिमण्डल लेकर आए थे, जिसमें सोवियत संघ के विदेश मन्त्रालय और मध्य एशियाई गणराज्यों के प्रतिनिधि शामिल थे।
नई दिल्ली में मिले स्वागत-सत्कार से रूसी प्रतिनिधिमण्डल अभिभूत रह गया। ख़्रुषोफ़ ने भारत की अपनी उस यात्रा को याद करते हुए जो संस्मरण लिखा है, उसमें वे लिखते हैं — भारत में हमारा ख़ूब स्वागत-सत्कार हुआ। हमारे साथ भारतीय लोग बेहद गर्मजोशी से दोस्ती, प्यार और भाईचारे का व्यवहार कर रहे थे। दुनिया के किसी भी दूसरे देश में हमने ऐसे मेहमाननवाज़ लोग और प्रधानमन्त्री (जवाहरलाल नेहरू) को नहीं देखा था।
भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में रूस की भूमिका
रूसी मेहमानों को राष्ट्रपति भवन में ठहराया गया था। रूस से आए इन अतिथियों को पहले दिन ही अप्रत्याशित रूप से कुछ बेरुखे व्यवहार का सामना भी करना पड़ा। रूसी प्रतिनिधिमण्डल के प्रति राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद का व्यवहार बहुत उदासीन और रूखा था। राजेन्द्र प्रसाद बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। वे इस बात को लेकर बहुत परेशान थे कि गोश्त खाने वाले इन कम्युनिस्टों को राष्ट्रपति भवन में ठहराया गया है।
ख़्रुषोफ़ को भी राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के विचार बताए गए। राजेन्द्र प्रसाद को लग रहा था कि राष्ट्रपति भवन में ठहरने वाले रूसी लोग उनके घर को भ्रष्ट कर देंगे क्योंकि वे लोग गोश्त के साथ-साथ मदिरा का भी सेवन ज़रूर करेंगे।
शायद जवाहरलाल नेहरू को भी यही विश्वास था कि रूसी लोग शराब पिए बिना जी ही नहीं सकते हैं, इसलिए उन्होंने चोरी-छिपे एक ख़ास कमरे में वोद्का, कोन्याक तथा शैम्पेन जैसे सभी मादक पेयों की व्यवस्था कर रखी थी, ताकि मेहमानों को जब ज़रूरत महसूस हो, तो वे उनका सेवन कर सकें।
हालाँकि ख़्रुषोफ़ ने नेहरू जी से कहा — आप उस ख़ास कमरे को बन्द करवा दीजिए। हमें उसकी ज़रूरत नहीं है। हमें आपकी परम्पराओं और रीति-रिवाजों का पालन करके बड़ी प्रसन्नता होगी।
ख़्रुषोफ़ ने आगे लिखा है — हममें से कोई भी उस कमरे में नहीं गया। मैंने तो अपने लोगों को उधर देखने से भी मना कर रखा था।
रूस-भारत रिश्तों की शुरूआत कैसे हुई थी?
ख़्रुषोफ़ ने भारतीय संसद को सम्बोधित किया। उसके बाद उनके नेतृत्व में रूसी दल ने पूरे भारत की यात्रा की।
रूसी प्रतिनिधिमण्डल जब मुम्बई हवाई अड्डे से बाहर निकला, तो उनका अभिनन्दन करने के लिए इतने सारे लोग उमड़ पड़े कि सड़क पूरी तरह से जाम हो गई। ख़्रुषोफ़ ने लिखा है — भारी भीड़ के बीच हमारा कारवाँ बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रहा था। लोग हमारी गाड़ियों पर टूट पड़े थे और हमसे हाथ मिलाने के लिए उत्सुक थे। हालत यह हो गई कि हमारी कार पर इतने लोग टूट पड़े थे कि उनके बोझ के मारे कार चल ही नहीं पा रही थी।
सुरक्षाकर्मियों ने रूस से पधारे इन गणमान्य व्यक्तियों को तुरन्त एक पुलिस वैन में बिठाया। पुलिस वैन के चारों ओर लोहे की जाली लगी हुई थी! जब रूसी मेहमान अपने निवासस्थान पर पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि चारों ओर ढेर सारे भारतीय जमा हैं और वे ‘हिन्दी रूसी भाई-भाई’ के नारे लगा रहे हैं। ये लोग रात भर वहीं जमे रहे और लगातार यह नारा लगाते रहे। सुबह होने पर ही वह भीड़ छँटी थी।
रूसी प्रतिनिधिमण्डल इसके बाद चेन्नई गया था। रूसियों ने इस शहर को बहुत साफ-सुथरा पाया, जैसे कि समुद्र के तट पर बसे ज़्यादातर शहर होते हैं....हमें अपने आसपास चारों ओर का माहौल बहुत अच्छा लग रहा था”।
चेन्नई में आयोजित एक कार्यक्रम में ख़्रुषोफ़ की बगल में एक बूढ़े से सज्जन बैठे हुए थे, जो लगोटी जैसी कोई चीज़ (शायद लुंगी) पहने हुए थे। उस पर उन्होंने कमीज़ भी नहीं पहन रखी थी।
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ये बूढ़े सज्जन भविष्य में भारत के विकास को लेकर अपनी समझ की व्याख्या करने लगे। ख़्रुषोफ़ लिखते हैं —उन्होंने तर्क दिया कि भारत को अपने विकास के लिए सोवियत संघ का माडल नहीं अपनाना चाहिए; भारत में बड़े कारख़ाने नहीं बनाए जा सकते हैं, भारत के लिए औद्योगीकरण का रास्ता अपनाना ठीक नहीं होगा। उनकी राय में इस घनी आबादी वाले देश में यदि बड़े-बड़े कारखाने बनाए जाएँगे, तो मशीनीकरण की वजह से भारी संख्या में लोग बेरोज़गार हो जाएंगे, जिससे भारत में बेरोज़गारी की समस्या और गम्भीर हो जाएगी तथा ग़रीबी और बढ़ेगी। उन्होंने गाँधी जी के चरखे को ही एकमात्र समाधान बताया। उनके अनुसार भारत में उद्योग के नाम पर केवल चरखे की ही ज़रूरत है।
यह वयोवृद्ध व्यक्ति चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य थे, जिन्होंने बाद में निजी उद्योगों की समर्थक स्वतन्त्र पार्टी की स्थापना की थी। निजी उद्योगों के ऐसे महारथी समर्थकों को देखते हुए इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि इसके 35 साल बाद ही प्रधानमन्त्री नरसिंह राव ने भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत की।
उपनिवेशवाद की भर्त्सना करने के मामले में रूस और भारत की राय बिल्कुल एक जैसी थी। ख़्रुषोफ़ ने लिखा है — हमने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि भारत की जनता की जो शोचनीय स्थिति बनी हुई है, उसकी वजह सैकड़ों वर्षों से जनता पर हो रहा विदेशी अत्याचार और अँग्रेज़ों द्वारा संगठित रूप से की गई एकाधिकारवादी लूट है, जिससे भारत ग़रीब होता चला गया हो गया जबकि अँग्रेज़ खूब मालामाल हो गए। हमारी इन बातों का भारत में हर जगह ख़ूब स्वागत हुआ। जब हम इन सब बातों के बारे में बताने लगते, तो श्रोतागण खूब जोश में भरकर तालियाँ बजाते और हमारी बातों का समर्थन करते। अपने भाषणों में उपनिवेशवाद-विरोधी बातें करके हम अँग्रेज़ी उपनिवेशवाद पर सीधा प्रहार कर रहे थे।
हालाँकि नेहरू जी और उनकी पुत्री इन्दिरा को अँग्रेज़ों पर हमारा सीधा हमला ज़रा भी नहीं सुहा रहा था।ख़्रुषोफ़ ने आगे लिखा है — फिर भी उन्होंने न तो हमसे कभी कुछ कहा और न ही किसी भी तरह हमें ऐसा कोई संकेत दिया कि हम लोग अपनी बातें कहने के लिए उनकी मेहमाननवाज़ी का ग़लत फ़ायदा उठा रहे हैं। लेकिन उनके रुख को देखकर हमने इसे पकड़ लिया कि उन्हें हमारी ये बातें पसन्द नहीं आ रही हैं। इसके बावजूद हमने अपने भाषणों में पहले की ही तरह अँग्रेज़ों को निशाना बनाना जारी रखा। हमारे लिए ख़ुशी की बात तो यह थी कि आम लोगों को हमारे भाषण बहुत पसन्द आ रहे थे।
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यह घटना इस बात का एक और सबूत है कि नेहरू-गाँधी परिवार भारतीय जनमानस से कितना कटा हुआ था। भारत के ज़्यादातर नागरिक स्वाभाविक रूप से अँग्रेज़ों को नापसन्द करते थे, लेकिन नेहरू जी को अँग्रेज़ों और उनकी व्यवस्था से खूब लगाव था।
ख़्रुषोफ़ ने इस मुद्दे पर भी टिप्पणी की है — हमने भारत की अपनी पूरी यात्रा के दौरान जगह-जगह पर ऐसे स्मारक देखे, जिन्हें अँग्रेज़ों ने भारत पर अपनी विजय की याद में बनवाया था। भारत में जगह-जगह अँग्रेज़ सेनानायकों या अँग्रेज़ों के राजा के अन्य प्रतिनिधियों की मूर्तियाँ लगी हुई थीं। आश्चर्य की बात यह थी कि स्वाधीन भारत के नीति-नियन्ताओं को इन विदेशी क्रूर हमलावरों की सरेआम मुँह चिढ़ाती मूर्तियों से कोई परेशानी नहीं थी।
भारतीय लोग बेहद सहनशील है। हम लोग यह देखकर चकित थे कि जो स्मारक भारतीयों को उनकी पराधीनता और अँग्रेज़ी शासन के अत्याचारों की लगातार याद दिलाते हैं, उन्हें वे लगातार बरदाश्त कैसे कर रहे हैं।
रूसी क्रान्ति के बाद हमने लगभग सभी पुरानी मूर्तियों को तोड़ दिया था। हमने केवल उन्हीं स्मारकों को ध्वस्त नहीं किया था, जिनके ऊपर उनके द्वारा किए गए अत्याचारों का वर्णन अंकित था ताकि लोगों के सामने इन अत्याचारियों का सही चेहरा बेनकाब होता रहे।
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वास्तविकता यह थी कि अँग्रेज़भक्त नेहरू अँग्रेज़ी दासता के इन अवशेषों को मिटाने के बिल्कुल इच्छुक नहीं थे। उन्होंने सिर्फ़ दिखावे के लिए, बस, कुछ छोटे-मोटे बदलाव ही किए थे। रूसी प्रतिनिधिमण्डल के आगमन से कुछ ही समय पहले उन्होंने नई दिल्ली के ’किंग्स वे’ का नाम बदलकर राजपथ और ’क्वीन्स वे’ का नाम बदलकर जनपथ किया था।
इसके बाद रूसी प्रतिनिधिण्डल जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर पहुँचा। ख़्रुषोफ़ ने अपने भाषण में भारत की कश्मीर नीति का साफ़-साफ़ समर्थन किया। रूसी नज़रिए से ऐसा करना बहुत आसान नहीं था। ख़्रुषोफ़ ने लिखा है — हम कश्मीर में अपनी उपस्थिति से भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों को और उलझाना नहीं चाहते थे, न ही हम कश्मीर पर भारत के दावे से अपने को जोड़ना चाहते थे। हम महसूस करते थे कि इस मामले में निष्पक्ष रुख रखना ही हमारे लिए बेहतर होगा। दोनों देशों को आपस में ही अपने विवादों को सुलझाने के लिए छोड़ देना चाहिए। भारत ने कश्मीर को लेकर अपने नज़रिए का समर्थन करने की हमसे जोरदार अपील की थी, किन्तु हम टस से मस नहीं हुए थे। लेकिन साफ़-साफ़ इनकार करके हम नेहरू जी के लिए परेशानी भी नहीं खड़ी करना चाहते थे। हमारी सहानुभूति भारत के साथ थी क्योंकि भारत ने अन्तरराष्ट्रीय मुद्दों पर बुद्धिमानी भरा रुख अपनाया था, भारत किसी सैन्य गुट का सदस्य नहीं था और सोवियत संघ के प्रति सहानुभूति भरा नज़रिया रखता था।
ख़्रुषोफ़ ने लिखा है — पाकिस्तान और भारत के विवाद में हमारे भारत के साथ खड़े होने की वजह से सोवियत संघ और भारत के आपसी मैत्रीपूर्ण रिश्ते और मज़बूत हुए।
इस भाषण के बारे में जानने के बाद इन्दिरा जी ने ख़्रुषोफ़ को फ़ोन करके बताया कि रूस के इस समर्थन के लिए नेहरू जी उनके बहुत आभारी हैं।
रूस-भारत सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण दिशा की ओर बढ़ने लगे थे।
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