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हालाँकि इस मन्दिर की छत पर भी गुम्बद बने हुए हैं, लेकिन उन गुम्बदों पर ईसाइयों की सलीब के साथ-साथ मुसलमानों के इस्लाम धर्म का प्रतीक चाँद और तारा भी लगा हुआ दिखाई देता है। यह सर्वधर्म मन्दिर है, जहाँ पर विभिन्न धर्मों के अनुयायी आकर एक साथ प्रार्थना कर सकते हैं।
रूस के सनातन ईसाई धर्म की विशेषताएँ
रूस के कज़ान नगर के मानवतावादी कलाकार इलदार ख़ानफ़ ने इस उम्मीद के साथ इस मन्दिर को बनवाना शुरू किया था कि आख़िरकार दुनिया में दिखाई दे रहा धार्मिक-संघर्ष ख़त्म हो जाएगा और लोग यह मानने लगेंगे कि ईश्वर एक ही है। इसी वजह से इस मन्दिर में किसी तरह की कोई पूजा या प्रार्थना नहीं होती है। सन् 2013 में जब इलदार ख़ानफ़ की मृत्यु हो गई तो पर्यटक इस मन्दिर को देखने आने लगे। आम लोगों द्वारा दिए जाने वाले दान और चन्दे से यह मन्दिर आज भी बन रहा है।
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मस्क्वा (मास्को) से 40 किलोमीटर दूर बीकवा गाँव में गोथिक शैली की एक दो मंज़िला महलनुमा इमारत थी, जो कहीं से भी किसी गाँव के एक साधारण गिरजे की तरह नहीं दिखती थी। अट्ठारहवीं सदी के अन्त में रूसी सेना के जनरल मिख़ाइल इज़माइलफ़ ने यह इमारत बनवाई थी। तब बीकवा गाँव उनकी जागीर में शामिल था। इस इमारत को बनाने का ठेका वास्तुकार वसीली बझेनफ़ ने लिया था। इससे पहले रूस के साम्राज्ञी येकतिरीना द्वितीया के लिए भी मस्क्वा के सरेसीना के इलाके में बझेनफ़ ने एक महल का निर्माण किया था, जिसे देखकर साम्राज्ञी बेहद नाराज़ हुई थी। 1930 में यह गिरजा नष्ट कर दिया गया था। गिरजे की इमारत में शुरू में गोदाम बना दिया गया। बाद में वहाँ एक सिलाई फ़ैक्टरी काम करने लगी। फिर 1989 में यह गिरजा फिर से काम करने लगा। अब यह गिरजा हर रोज़ खुलता है और शनिवार व रविवार को यहाँ पूजा व प्रार्थना होती है।
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रूस के भावी ज़ार प्योतर प्रथम का पालन पोषण करने वाले राजा बरीस गलीत्सिन ने 1703 में मस्क्वा से साठ किलोमीटर दूर स्थित अपनी एक जागीर दुब्रोवित्सी में एक विशाल मुकुट के रूप में इस प्रसिद्ध गिरजाघर का निर्माण करवाया था। यह गिरजा भी उन्हीं दिनों बनवाया गया था, जिन दिनों रूस में प्योतर प्रथम ने साँक्त पितेरबुर्ग (सेण्ट पीटर्सबर्ग) शहर की स्थापना की थी। बीसवीं सदी के आरम्भ में इस गिरजाघर को संग्रहालय में बदल दिया गया था। उसके बाद 1930 में इस गिरजाघर के गुम्बदों और मुख्य इमारत को बारूद लगाकर उड़ा दिया गया। इसके 60 साल बाद इस गिरजाघर का फिर से निर्माण किया गया और यह फिर से काम करने लगा।
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आज भी इतिहासकारों के बीच इस सवाल पर बहस होती है कि मस्क्वा से 800 किलोमीटर दूर वरोनिझ प्रदेश में कच्ची चट्टानों को खोदकर उनके बीच इस गुफ़ा मठ का निर्माण किसने किया होगा। बहस का मुद्दा यह है कि इसका निर्माण 17वीं सदी में स्थानीय ईसाई भिक्षुओं ने किया था या 8वीं सदी में बाइजेण्टाइन से भागकर आए दैवचित्र विरोधी साधुओं ने। आधुनिक रूस में कस्तमरोव्स्की साध्वी गुफ़ा मठ ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार का एक सबसे प्राचीन केन्द्र माना जाता है।
1917 की समाजवादी क्रान्ति के बाद इस मठ को बन्द कर दिया गया था। लेकिन इस मठ में रहने वाले बहुत से पुराने भिक्षुक दूसरी गुफ़ाओं में जाकर रहने लगे। इसके ढाई दशक बाद 1942-43 में यह इलाका भी दूसरे महायुद्ध की लड़ाइयों में फँस गया और इस इलाके पर फ़ासिस्ट जर्मनी की फ़ौज ने कब्ज़ा कर लिया। उन दिनों स्थानीय निवासी इस मठ का इस्तेमाल शत्रु सैनिकों से अपनी जान बचाने के लिए किया करते थे।
फिर 1997 से यह मठ फिर से चालू हो गया। भिक्षुक गर्मियों में गुफ़ाओं में बने स्पास्की मठ में रहते हैं और जाड़ों में वे माँ मरियम के दैवचित्र नामक नीचे मैदान में बने मठ में रहने के लिए आ जाते हैं।
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18वीं सदी में राजा अलिक्सान्दर व्याज़िम्स्की ने त्रिदेव चर्च की एक विलक्षण इमारत बनवाई थी। इसका डिजाइन वास्तुकार ने नहीं, बल्कि ख़ुद अलिक्सान्दर व्याज़िम्स्की ने बनाया था। इस गिरजाघर की इमारत और उसके घण्टाघर की इमारत रूसी पकवानों से मिलती-जुलती हैं। रूस में ईस्टर के अवसर पर पनीर और मक्खन से एक विशेष क़िस्म का ईस्टर-केक बनाया जाता है, जो ऊपर से गोलाई लिए हुए होता है। इस केक को रूस में कुलीच कहते हैं। ये दोनों इमारतें भी कुलीच के आकार की ही हैं।
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मस्क्वा से 500 किलोमीटर दूर क्रीमिया में कची-कल्योन गुफ़ा-नगर के पास पहाड़ों की ढलान में तश-आइर गुफ़ाओं में एक छोटा-सा गिरजाघर बना हुआ है, जिसे शहीद अनस्तसीया का गिरजा कहा जाता है। इस पहाड़ की तलहटी से ऊपर जाने के लिए मोटर-कारों के पुराने टायरों से एक पगडण्डी बनी हुई है। इस पगडण्डी पर 15 मिनट की चढ़ाई चढ़कर और कुछ झाड़ियों को पार करके आप तश-आइर गुफ़ाओं तक पहुँच जाएँगे, जहाँ यह विचित्र गिरजाघर बना हुआ है।
सोवियत सत्ता के दौरान ज़्यादातर गिरजाघरों की तरह इस गिरजाघर का भी बुरा हाल किया गया था। 1932 में बारूद लगाकर इस गिरजाघर को उड़ा दिया गया था। फिर 2005 में इसका पुनर्निर्माण शुरू किया गया। दशकों तक यह जगह ऐसे ही उजाड़ पड़ी रही। गुफ़ाओं में नमी छा गई थी। इस नमी के कारण गुफ़ाओं की दीवारों पर पेण्ट नहीं चढ़ रहा था। तब भिक्षुओं ने इस गिरजाघर की दीवारों पर मोती और रंग-बिरंगे पत्थर चिन दिए। इन पत्थरों और मोतियों की ख़ासियत यह है कि एक जैसा दूसरा पत्थर या एक जैसा दूसरा मोती आपको यहाँ देखने को नहीं मिलेगा।
क्रीमिया के निवासी बदलते रहे। क्रीमिया में शासन बदलते रहे। लेकिन आठवीं सदी में बनाया गया यह गिरजा हमेशा सुरक्षित रहा। इसके बारे में उन्नीसवीं सदी में क्रीमिया की यात्रा करने वाले यात्रियों ने संस्मरण लिखे और आज भी क्रीमिया जाने वाले लोग इस विलक्षण गिरजाघर को देखने ज़रूर पहुँचते हैं।
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