’सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन’ 2017 में अपनी दोहरी जयन्ती मना रहा है। आज से 25 साल पहले सोवियत संघ के पतन के बाद 1992 में पूर्व सोवियत संघ में शामिल कुछ देशों ने अपना एक सैन्य-राजनीतिक संगठन बना लिया था। लेकिन यह संगठन क़रीब दस साल तक नाकाम बना रहा और उसने कुछ भी नहीं किया। इन दस सालों में पूर्व सोवियत प्रदेशों के बीच अनेक संकट उभर कर सामने आए। 1990 के दशक में 1992 से 1994 तक नगोर्नी कराबाख़ में भयंकर लड़ाई हुई, 1992 से 1997 के बीच ताजिकिस्तान में भी गृह-युद्ध चलता रहा, 1992-1993 में जार्जिया और अभाज़िया के बीच सैन्य टकराव हुआ और रूस के चेचनिया प्रदेश में भी 1994-1996 व 1999-2000 में दो बार भारी संकट की स्थितियाँ पैदा हुईं।
परन्तु सन् 2000 के आसपास परिस्थिति स्थिर हो गई, जिसकी वजह से 1992 में की गई सन्धि के आधार पर ’सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन’ के नाम से एक सम्पूर्ण अन्तरराष्ट्रीय संगठन की स्थापना करना संभव हो पाया। मई 2002 में रूस, बेलारूस, कज़ाख़स्तान, अरमेनिया, किर्गीज़िस्तान और ताजिकिस्तान ने मिलकर इस संगठन का गठन कर लिया। इस संस्था की नियमावली में जिन उद्देश्यों का ज़िक्र किया गया है, वे आज भी सम-सामयिक हैं। ये उद्देश्य हैं — शान्ति को बनाए रखना और उसे मज़बूत बनाना, अन्तरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय सुरक्षा की स्थापना करना, सामूहिक रूप से अपने सदस्य देशों की आज़ादी, क्षेत्रीय अखण्डता और सार्वभौमिकता व स्वायत्तता की रक्षा करना।
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सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन का गठन होने से पहले ही 2001 में इस संगठन के सदस्य देशों ने अपनी सँयुक्त सेना बना ली थी और उसे नाम दिया था — सामूहिक तीव्र प्रत्याघात सेना (कलेक्टिव रैपिड रिएक्शन फ़ोर्स)। विश्लेषकों के अनुसार, इस सँयुक्त सेना के गठन की ज़रूरत इसलिए पड़ी थी क्योंकि मध्य एशियाई देशों में भी आतंकवाद के चक्रव्यूह में फँसने का ख़तरा पैदा हो गया था। 1996 से 2001 तक अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सत्ता में आ गया था और तालिबानी उग्रवादियों व आतंकवादियों की काली छाया मध्य एशियाई देशों को भी निगलने के लिए तैयार थी।
मस्क्वा (मास्को) के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध संस्थान के सोवियतोत्तर अनुसन्धान केन्द्र की विशेषज्ञ यूलिया निकीतिना ने अपने एक लेख में लिखा है कि अगर अमरीका के नेतृत्व में अन्तरराष्ट्रीय गठबन्धन ने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य कार्रवाई शुरू नहीं की होती तो सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन को ही अफ़ग़ानिस्तान के उग्रवादी ख़तरे के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी पड़ती। इसीलिए तब सँयुक्त सेना बनाई गई थी।
लेकिन स्थिति बदल गई। अफ़ग़ानिस्तान में अन्तरराष्ट्रीय गठबन्धन ने आतंकवाद विरोधी सैन्य कार्रवाई शुरू कर दी और मध्य एशियाई देशों पर आतंकवादी हमले और इन देशों में आतंकवाद फैलने का ख़तरा टल गया। लेकिन पारस्परिक सुरक्षा की एक संस्था के रूप में 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' धीरे-धीरे विकास करता रहा। सन् 2009 में 'सामूहिक तीव्र प्रत्याघात सेना' का पुनर्गठन किया गया। आजकल इस सामूहिक सेना में 25 हज़ार सैनिक शामिल हैं।
'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' ने अभी तक एक बार भी सचमुच किसी लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया है, लेकिन इस संगठन की सेना हर साल सँयुक्त सैन्याभ्यासों का आयोजन करती है और अपराधियों व आतंकवादियों के ख़िलाफ़ क़दम उठाने से सम्बन्धित अभ्यास करती है। 2017 में भी 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' की सेना 'सामूहिक तीव्र प्रत्याघात सेना' और शान्ति सेनाओं के साथ मिलकर व्यापक सँयुक्त सैन्याभ्यासों का आयोजन करेगी।
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यूलिया निकीतिना के कथनानुसार, सैन्य दृष्टि से देखें तो 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' काफ़ी उपयोगी संस्था है। सँयुक्त सैन्याभ्यासों की बदौलत न केवल भावी युद्धों और भावी संकटों में सँयुक्त रूप से कार्रवाइयाँ करने की संभावना मिलती है, बल्कि जवानों के सैन्य कौशल को बेहतर बनाने में भी सहायता मिलती है। दूसरी तरफ़ रूस-भारत संवाद से बात करते हुए मस्क्वा के कर्नेगी केन्द्र के विश्लेषक अलिक्सेय मलशेन्का ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अभी तक यह जानकारी नहीं हुई है कि 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' की वास्तव में कुल ताक़त कितनी है, क्योंकि उसकी सेना ने अभी तक किसी लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया है और कोई सैन्य कार्रवाई नहीं की है। अलिक्सेय मलशेन्का ने कहा — आज तक किसी ने भी इस संगठन को सक्रिय रूप से कार्रवाई करते हुए नहीं देखा है। सँयुक्त सैन्य अभ्यास अच्छी बात है, लेकिन अभ्यास में और सचमुच की लड़ाई में बड़ा फ़र्क होता है।
ज़्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' का होना ही अपने आप में बड़ी बात है और उसकी उपस्थिति के कारण ही कोई संकट पैदा नहीं होता। रूस के हायर स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स के विश्व राजनीति संकाय के डीन सिर्गेय करगानफ़ ने रूस-भारत संवाद से बात करते हुए कहा — आज से 15 साल पहले ज़्यादातर विश्लेषकों का यह कहना था कि मध्य एशिया में हिंसा का नया नंगा नाच शुरू हो जाएगा। लेकिन वैसा कुछ भी नहीं हुआ। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि रूस और उसके सहयोगी देशों ने एक-दूसरे का साथ दिया और सँयुक्त शक्तिशाली सेना खड़ी कर ली। सिर्गेय करगानफ़ का मानना है कि यह गठबन्धन काफ़ी प्रभावशाली है।
सोवियत संघ के पतन के बाद उससे अलग हुए देशों का अध्ययन करने वाले संस्थान के उपनिदेशक व्लदीमिर झरीख़िन भी सिर्गेय करगानफ़ की बातों से सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं — 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' की स्थापना एक रक्षा-समूह के रूप में की गई थी और वह अपना काम काफ़ी प्रभावशाली ढंग से पूरा कर रहा है। आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के अलावा, झरीख़िन ने 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' के एक और उद्देश्य की याद दिलाई। उन्होंने कहा — रूस इस संगठन के माध्यम से अपने सहयोगी देशों को 'परमाणु सुरक्षा छतरी' भी उपलब्ध कराता है, जिसके कारण इन देशों में परिस्थिति स्थिर बनी रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' अपने सदस्य देशों को तथाकथित 'रंगीन क्रान्तियों' से सुरक्षा उपलब्ध कराता है।
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पश्चिमी मीडिया में कभी-कभी 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' की तुलना नाटो से की जाती है और यह भी कहा जाता है कि ऐसा करना एकदम उचित नहीं है। स्ट्राटफ़ोर योगेन चाऊशेव्स्की नामक एक विश्लेषक ने एक लेख लिखा है, जिसका शीर्षक है — रूसी सैन्य गठबन्धन दूसरा नाटो नहीं है। अपने इस लेख में उन्होंने ज़ोर दिया है कि 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' के सदस्य देशों के बीच अक्सर राजनीतिक सवालों पर मतैक्य नहीं होता। जैसे बेलारूस और कज़ाख़स्तान की सरकारें रूस के राजनीतिक नज़रिए से अलग अपना नज़रिया रख सकती हैं और पश्चिमी देशों के साथ अपने अलग सम्बन्ध बना सकती हैं।
रूसी विशेषज्ञों ने 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' और नाटो के बीच एक और फ़र्क को भी रेखांकित किया है। व्लदीमिर झरीख़न के अनुसार, नाटो की स्थापना कम्युनिज़्म की बढ़त को रोकने और कम्युनिज़्म से पश्चिमी देशों की सुरक्षा करने के लिए की गई थी। लेकिन बाद में उसका उद्देश्य बदल गया और उसने विस्तारवादी स्वरूप ग्रहण कर लिया। आज वह पश्चिमी यूरोप की सीमाओं के बाहर दूर-दूर तक अपने पैर फैला रहा है। जबकि 'सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन' अपने सुरक्षा के विचार से बाहर नहीं आया है और अपने उसी काम में लगा हुआ है, जिसके लिए 15 साल पहले उसकी स्थापना की गई थी।
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